भारत एक ऐसा देश है जहाँ सभी प्रकार के मत एवं सम्प्रदाय को मानने वाले लोग रहते हैं । भारत में सदियों से नास्तिकता अस्तित्व में है और उसे उसी रूप में नागरिकता भी प्रदान की गयी है, क्योंकि भारतीय दर्शन के कई विचारक जैसे चार्वाक, लोकायत, सांख्य तथा बौद्ध धर्म आदि भी ईश्वर को नहीं मानते हैं । वीन – गैलप की 2012 की रिपोर्ट की अनुसार 3% भारतीय नागरिक अनास्थावादी ( नास्तिक ) हैं । संविधान के अंतर्गत प्रदान की गई ‘ विवेक की स्वतंत्रता’ की वास्तविक भावना को समझने के लिए संदर्भ संविधान सभा बहस में इस विषय पर हुई चर्चा को देखना चाहिए। 17 अक्टूबर, 1949 को संविधान सभा के सदस्य एच॰ वी॰ कामथ ने संविधान की प्रस्तावना के प्रारूप में एक संशोधन का प्रस्ताव दिया था कि ‘ हम, भारत के लोग’ शब्द से पहले ‘भगवान के नाम पर’ जोड़ा जाना चाहिए। संविधान सभा के सदस्यों ने ज़ोर देकर कहा कि वे इस संशोधन के खिलाफ हैं। इस प्रकार इसे अस्वीकार कर दिया गया। संविधान सभा के एक सदस्य, पेटौम ए थानु पिल्लई ने कहा कि इस संशोधन द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को ‘आस्था’के मामले को मानना होगा । उन्होने कहा कि यह स्थिति धार्मिक स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकार को प्रभावित कर सकता है । संविधान के अनुसार एक व्यक्ति को ईश्वर में विश्वास करने या न करने का अधिकार है । कामथ ने कहा कि प्रस्तावित संशोधन को अस्वीकार करना एक सचेत निर्णय था, जो स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि संविधान सभा में अनास्थावादीयों के संवैधानिक अधिकारों को मान्यता दी ।
संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार, किसी व्यक्ति को यह मानने की स्वतन्त्रता है कि वह किसी भी धर्म से सम्बद्ध नहीं है । अनुच्छेद 25 (1) का दूसरा भाग स्वतंत्र रूप से किसी धर्म को मानने तथा उसका प्रचार करने का अधिकार देता है। अनुच्छेद 19 (1) (A) के अंतर्गत भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार दिया गया है । संजय आनंद साल्वे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2015) तथा रंजीत सूर्यकांत मोहित बनाम संघ (2015) के केस में विवेक की स्वतंत्रता तथा व्यक्ति की धारणा के संदर्भ में निर्णय देते समय अनुच्छेद 19 (1) A के प्रावधानों को दोहराया गया है। हालांकि अनुच्छेद 19 (2) भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की सीमाएं निर्धारित करता है।इन सीमाओं के कारण अनास्था रखने वालों के संवैधानिक अधिकारों तथा भारतीय दंड संहिता की धारा 295 A के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है। रतीलाल पनचंद गांधी बनाम मुंबई राज्य 1954 के केस में बॉम्बे हाई कोर्ट ने निर्णय दिया था कि चुकि संविधान निर्माताओं ने धर्म को परिभाषित करने का कोई प्रयास नहीं किया है इसलिए धर्म शब्द की ऐसी कोई पूर्ण परिभाषा देना संभव नहीं है जो सभी व्यक्तियों या वर्गों पर लागू हो सके।
भारतीय नास्तिक सोसायटी बनाम आंध्र प्रदेश 1992 केस में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि किसी भी धर्म तथा ईश्वर में विश्वास ना होने को विशेष विश्वास कहा जा सकता है।उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यह भी कहा कि ’अनास्थावादी’ यदि यह मानते हैं कि “कोई भगवान नहीं है” तो उनके इस विश्वास की रक्षा के लिए कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है।
हालांकि न्यायालय द्वारा अपनाया गया यह दृष्टिकोण संविधान में निहित सिद्धांतों के विपरीत था। 2000 के दशक में इस विषय पर न्यायालय के दृष्टिकोण में परिवर्तन देखने को मिला है। उदाहरण के लिए रणजीत सूर्यकांत मोहित बनाम भारत सरकार 2014 मामले में बंबई हाईकोर्ट ने यह फैसला दिया कि संविधान के अनुच्छेद 25 के अंतर्गत “विवेक की स्वतंत्रता” का अधिकार है जो किसी नागरिक को नास्तिक होने की छूट देता है।”विवेक” को सही या गलत की नैतिक भावना के रूप में परिभाषित करते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि एक नास्तिक को भी अपने “विवेक की स्वतंत्रता का अधिकार” है और उसे किसी धर्म का अभ्यास या प्रचार ना करने की स्वतंत्रता है। यह भी कहा गया था कि किसी भी धर्म का पालन करने के लिए किसी को भी मजबूर नहीं किया जा सकता।
न्यायमूर्ति केएस पुट्टा स्वामी(सेवानिवृत) बनाम संघ 2017 के केस में गोपनीयता के अधिकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट के 9 न्यायधीश के खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा था कि भारत के नागरिकों को गोपनीयता का मौलिक अधिकार है। गोपनीयता के अधिकार के अंतर्गत किसी विश्वास या आस्था को चुनने या न चुनने की भी स्वतंत्रता होती है।
संवैधानिक नैतिकता का महत्व सार्वजनिक या धार्मिक नैतिकता से अधिक है। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली सरकार बनाम भारत सरकार (2018) के मामले में न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में लिखा था की संविधान के अनुच्छेद 25 के अंतर्गत किसी व्यक्ति को नास्तिक या अनास्थावादी हो सकने के मौलिक अधिकार है।
संवैधानिक पीठ ने सितंबर, 2018 को नवजोत सिंह जौहर केस के फैसले में फिर से दोहराया है तथा अनुच्छेद 25 के अंतर्गत विवेक के अधिकार को एक मौलिक अधिकार माना है। इसी मौलिक अधिकार के द्वारा संवैधानिक पीठ ने समलैंगिक, उभयलिंगी तथा ट्रांसजेंडर के संवैधानिक अधिकारों की पहचान की है और उन्हें प्रचलित सामाजिक एवं धार्मिक मूल्यों के प्रति अनास्था रखने का अधिकार दिया गया है।