कोरोना महामारी के दौरान लॉकडाउन के काल में घरेलू हिंसा में कुल 20% की वृद्धि बेहद चिंता का विषय है। संयुक्त राष्ट्र संघ कोविड-19 के समानांतर बड़ी इस गंभीर समस्या को शैडो पैन्डेमिक कहा है। ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट बताती है कि कई देशों में यह वृद्धि 15-30% तक हुई। विश्व में हर तीन में से एक स्त्री घरेलू हिंसा का शिकार होती है। एनएफएचएस-4 की रिपोर्ट के अनुसार अगर हम भारत की बात करें तो 30% महिलाएं किसी ना किसी रूप में घरेलू हिंसा का शिकार हो रही है। 

आमतौर पर घरेलू हिंसा के अंतर्गत उस पड़ताड़ना को रखा जाता है जब किसी महिला का शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, मौखिक, मनोवैज्ञानिक या यौन शोषण किसी ऐसे व्यक्ति के द्वारा किया जाता हो, जिसके साथ महिला का पारिवारिक संबंध है। हालांकि घरेलू हिंसा की वैधानिक परिभाषा घरेलू हिंसा के विरुद्ध महिला संरक्षण अधिनियम की धारा 2005 में दी गई है। अधिनियम के पैरा-3 के अनुसार किसी अभियुक्त द्वारा किया गया कोई ऐसा कृत्य, चूक या आचरण जो पीड़ित (स्त्री जो अभियुक्त के घरेलू संबंध में हो) के स्वास्थ्य, सुरक्षा, जीवन, अंग या सेहत को मानसिक या शारीरिक रूप से नुकसान पहुँचाता हो या ऐसा करने की कोशिश करता हो घरेलू हिंसा है। इसके अंतर्गत शारीरिक हिंसा, यौन हिंसा, मौखिक और भावनात्मक दुर्व्यवहार तथा आर्थिक शोषण शामिल हैं। इसी पैरा के उपखंडों में आगे शारीरिक हिंसा, यौन हिंसा, मौखिक तथा भावनात्मक हिंसा और आर्थिक शोषण को अलग से परिभाषित किया गया है।

‘शारीरिक शोषण’ का अर्थ है कोई भी कार्य या आचरण जो ऐसी प्रकृति का है जिसमें पीड़ित को शारीरिक पीड़ा, चोट या जीवन, अंग अथवा स्वास्थ्य के लिये खतरा पैदा होता हो या पीड़ित व्यक्ति के स्वास्थ्य या विकास को नुकसान पहुँचाता हो; इसमें हमला, आपराधिक धमकी और आपराधिक ताकतों का इस्तेमाल भी शामिल हैं।

‘यौन हिंसा’ में यौन प्रकृति का कोई भी ऐसा आचरण शामिल है जो महिला की गरिमा का हनन, अपमान या उसे नीचा दिखाता है;

‘मौखिक और भावनात्मक शोषण’ में शामिल हैं- (क) अपमान, उपहास, तिरस्कार, गाली देना और विशेष रूप से संतान या लड़का न होने के संबंध में अपमान या उपहास; तथा (ख) किसी ऐसे व्यक्ति को शारीरिक पीड़ा देने की लगातार धमकियाँ देना जिससे पीड़ित व्यक्ति हितबद्ध है; ‘आर्थिक शोषण’ में शामिल हैं- (क) ऐसे सभी या किन्हीं आर्थिक या वित्तीय संसाधनों, जिनके लिये पीड़ित व्यक्ति किसी विधि या रूढ़ि के अधीन हकदार है, चाहे वे किसी न्यायालय के किसी आदेश के अधीन या अन्यथा संदेय हों या जिनकी पीड़ित व्यक्ति, किसी आवश्यकता के लिये, जिसके अंतर्गत पीड़ित व्यक्ति और उसके बालकों, यदि कोई हों, के लिये घरेलू आवश्यकताएँ भी हैं, अपेक्षा करता है, किंतु जो उन तक सीमित नहीं हैं। जैसे- स्त्रीधन, पीड़ित व्यक्ति के संयुक्त रूप से या पृथकतः स्वामित्वाधीन संपत्ति, साझी गृहस्थी और उसके रखरखाव से संबंधित किराये से वंचित करना आदि।

कानून की तकनीकी शब्दावली को सामान्यीकृत कर समझें तो घरेलू नातेदारों द्वारा किसी स्त्री को शारीरिक, मानसिक, मौखिक, भावनात्मक या आर्थिक रूप से चोट पहुँचाना ता घरेलू हिंसा के अंतर्गत आता है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के आँकड़े बताते हैं कि 2015-16 के दौरान 15-49 वर्ष की महिलाओं में लगभग 33 प्रतिशत विवाहित महिलाएँ अपने पति द्वारा शारीरिक, यौनिक तथा भावनात्मक हिंसा की शिकार रही हैं। यानी लगभग एक-तिहाई विवाहित महिला घरेलू हिंसा की शिकार हैं। इनमें 30 प्रतिशत विवाहित महिलाओं को पति द्वारा शारीरिक हिंसा एवं 7 प्रतिशत महिलाओं को यौन हिंसा का शिकार होना पड़ा है तथा 14 प्रतिशत भावनात्मक हिंसा की शिकार रही हैं। इसके साथ ही 4 प्रतिशत ऐसी महिलाएँ हैं जो कभी-न-कभी गर्भावस्था के दौरान शारीरिक हिंसा की शिकार रही हैं। यदि हम घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं के आँकड़ों का गंभीरतापूर्वक अध्ययन करें तो पाते हैं कि घरेलू हिंसा की शिकार स्त्रियों में लगभग सभी उम्र (15-49) की स्त्रियों, लगभग सभी धर्मों, सभी आय वर्गों, सभी शैक्षिक स्तरों, सभी घरेलू संरचनाओं, ग्रामीण अथवा शहरी रोजगार युक्त अथवा बेरोज़गार, सभी का अनुपात कमोबेश आसपास ही है। भले ही, कुछ वर्गों जैसे अनपढ़ों में यह अनुपात कुछ ज्यादा है तो उच्च शिक्षाप्राप्त में कुछ कम, लेकिन घरेलू हिंसा लगभग सभी वर्गों में सामान रूप से व्याप्त है। और यह एक सार्वभौमिक समस्या है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर में हर तीन में से एक स्त्री (लगभग 35%) अपने अंतरंग साथी द्वारा घरेलू हिंसा की शिकार है और 38% महिलाओं की हत्याएँ अपने अंतरंग पुरुष साथी द्वारा की जाती हैं। ये वे आँकड़े हैं जो कहीं-न-कहीं रिपोर्ट किये गए हैं। घरेलू हिंसा में एक बड़ी संख्या उनकी है जो कभी रिपोर्ट नहीं हो पातीं। भारत की सामाजिक संरचना में यह समस्या कहीं अधिक गंभीर है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 की रिपोर्ट बताती है कि भारत की 79.5 प्रतिशत स्त्रियाँ अपने साथ हुई शारीरिक हिंसा को किसी से नहीं बतातीं जबकि 9 प्रतिशत केवल बताने के भाव में किसी से बताती हैं तथा केवल 11.6 प्रतिशत स्त्रियाँ किसी से मदद की गुहार करती हैं। यही हाल यौन हिंसा का भी है। 80.6 प्रतिशत स्त्रियाँ अपने साथ हुए यौन हिंसा का किसी से जिक्र नहीं करतीं। प्रसिद्ध जर्नल ‘द लैंसेट’ की रिपोर्ट कहती है कि 85% विवाह के अंतर्गत या विवाह से बाहर यौन हिंसा में केवल 1 प्रतिशत की ही रिपोर्ट पुलिस में हो पाती है। इसके अलावा, सभी तक न्याय की पहुँच में असमानता, पुलिस तथा अन्य समरूपी संस्थाओं का घोर पितृसत्तात्मक चरित्र और जाति, धर्म, वर्ग, सामाजिक बंधन, कानूनी समझ तथा सामाजिक दबाव जैसे कई कारण ऐसी घटनाओं की कम रिपोर्टिंग में बड़े कारक साबित होते हैं।

कुल मिलाकर निष्कर्ष निकालें तो भारत में ऐसी स्त्रियों की बड़ी संख्या है जो किसी-न-किसी रूप में घरेलू हिंसा की शिकार हैं। रिपोर्ट के आँकड़ों के आधार पर भले ही यह एक-तिहाई के आसपास है मगर वास्तव में यह संख्या आधी या उससे कहीं अधिक है। 

घरेलू हिंसा से निजात पाने के लिए विश्व स्तर पर 90 के दशक से कार्य किया जा रहा है। इस बात को 1993 में वियना में हुए मानव के अधिकार पर विश्व सम्मेलन में स्वीकार किया गया था। संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिसंबर 1993 में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के उन्मूलन पर घोषणा की। वैश्विक स्तर पर महिलाओं के खिलाफ हिंसा से निपटने के लिए यह पहला अंतरराष्ट्रीय दस्तावेज है। इसी के परिणाम स्वरुप 1994 में मानवाधिकार आयोग ने एक संकल्प अपनाया, जिसके अंतर्गत महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर एक विशेष प्रतिवेदक नियुक्त किया गया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं के हिंसा के खिलाफ जितने भी कानून बनाए गए, उसका उद्देश्य महिलाओं के खिलाफ हिंसा के सभी रूपों को समाप्त करना है। भारत में भी घरेलू हिंसा के खिलाफ कानून बनाए गए हैं। महिला संरक्षण अधिनियम-2005, दहेज निषेध अधिनियम-1961 और भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ‘ए’, भारत में बनाए गए ये तीनों कानून महिला को सुरक्षा प्रदान करने के दृष्टिकोण से लागू किया गया। तीनों कानूनों में अब तक का सबसे सफल कानून मेरी दृष्टिकोण में दहेज निषेध अधिनियम-1961 है। यह कानून सफल इसलिए है क्योंकि लोग दहेज प्रताड़ना की इस कठोर कानून से डरते हैं क्योंकि इस कानून के तहत धारा 406 के अंतर्गत 3 वर्ष की कैद से लेकर भारतीय दंड संहिता की धारा 304 ‘बी’ के अंतर्गत जुर्माने के साथ आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है। 

महिलाओं के खिलाफ हिंसा को लेकर बने तमाम कानूनों और वैश्विक सम्मेलनों के बावजूद आज भी विश्व की एक तिहाई महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार है। इसका तात्पर्य है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा के कानूनों के कार्यान्वयन का अनुपात अत्यंत कम है। अतः निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि घरेलू हिंसा की जो समस्या है, वह एक सामाजिक और संस्थागत समस्या है। चूँकि घरेलू हिंसा के जड़े परिवार समाज प्रथम मूल्यों में व्याप्त है इसीलिए इसका बुनियादी समाधान भी इन्हीं के स्तर पर खोजना होगा। पुरुषों को ऐसे आपराधिक कृत्यों के प्रति अपना पुरातन पंथी रवैया छोड़ना होगा दूसरा घर की स्त्री को दासी की बजाय बराबर की सहभागी समझना होगा। स्त्रियों को चाहिए कि वे पुरुषों के बनाए सांस्कृतिक आधिपत्य की जकड़न को समझें और किसी भी प्रकार की हिंसा के खिलाफ मुखर हो, ऐसी घटनाओं के प्रति जीरो टॉलरेंस रखें, पुलिस में शिकायत दर्ज कराएं तथा विभिन्न हेल्पलाइन नंबर एवं एनजीओ से सहयोग लें और मजबूती से कानून के जरिए अपराधी को सजा दिलाएं। कई बार ऐसा देखा गया है कि महिलाएं महिला थाना के अभाव में भी अपने ऊपर हुए अत्याचार की शिकायत थाने में जाकर दर्ज नहीं कराती है क्योंकि उन्हें थाना से असुरक्षा की भावना व्याप्त रहती है। अतः हर जगह हर पुलिस स्टेशन में घरेलू हिंसा जैसे मामलों के लिए एक स्पेशल महिला विंग भी होना चाहिए, जिसकी स्टाफ अनिवार्य रूप से महिलाएं हो। कुल मिलाकर घरेलू हिंसा के बारे में यह कहा जा सकता है कि घरेलू हिंसा भारत में एक बहुस्तरीय समस्या जिसका हल व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, क़ानूनी आदि बहुस्तरीय समाधानों द्वारा ही निकाला जा सकता है।

By LNB-9

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