करवा चौथ हिंदुओं के प्रमुख त्यौहार में से एक है। यह मुख्यतः हमारे भारत के पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान में मनाया जाता है। यह पर्व सौभाग्यवती स्त्रियां सोलह श्रृंगार कर बड़ी श्रद्धा एवं उत्साह के साथ मनाती हैं। स्त्रियां अपने पति की लंबी आयु, स्वास्थ्य व सौभाग्य के लिए इस व्रत को करती हैं। यह पर्व कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है। करवा चौथ को करक चतुर्थी और दशरथ चतुर्थी के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन सुहागिन स्त्रियां सोलह श्रृंगार कर शिव परिवार की पूजा अर्चना करती है। सौभाग्यवती स्त्रियां छलनी की ओट में से चांद को देखने की परंपरा निभाकर इस व्रत को तोड़ती है। चांद में सुंदरता, सहनशीलता, प्रसिद्धि और प्रेम जैसे सभी गुण पाए जाते हैं। इसलिए सुहागिन महिलाएं छलनी से पहले चांद देखती हैं फिर अपने पति का चेहरा। वह चांद को देखकर यह कामना करती हैं कि उनके पति में भी यह सभी गुण आ जाएं। मां पार्वती उन सभी महिलाओं को सदा सुहागन होने का वरदान देती हैं जो पूर्णतः समर्पण और श्रद्धा विश्वास के साथ यह व्रत करती हैं।- पौराणिक कथा के अनुसार एक बार वीरवती नाम की पतिव्रता स्त्री ने करवाचौथ का व्रत किया। भूख से व्याकुल वीरवती की हालत उसके भाइयों से सहन नहीं हुई,अतः उन्होंने चंद्रोदय से पूर्व ही एक पेड़ की ओट में चलनी लगाकर उसके पीछे आग जला दी और अपनी बहन से आकर कहा-‘देखो चाँद निकल आया है अर्घ्य दे दो ।’ बहन ने झूठा चाँद देखकर व्रत खोल लिया जिसके कारण उसके पति की मृत्यु हो गई।साहसी वीरवती ने अपने प्रेम और विश्वास से मृत पति को सुरक्षित रखा। अगले वर्ष करवाचौथ के ही दिन नियमपूर्वक व्रत का पालन किया जिससे चौथ माता ने प्रसन्न होकर उसके पति को जीवनदान दे दिया । तब से छलनी की ओट में से चाँद को देखने की परंपरा आज तक चली आ रही है।
चंद्रमा का उदय रोहिणी नक्षत्र में होना एक अद्भुत संयोग है। मान्यताओं के अनुसार चंद्रमा की 27 पत्नियों में से सबसे प्रिय रोहिणी के साथ होने से यह योग बन रहा है। करवा चौथ के शुभ अवसर पर चंद्रोदय का समय 8:09 के आस-पास बताया जा रहा है, वहीं करवा चौथ पूजन का शुभ मुहूर्त शाम 6:55 से लेकर 8:51 तक बताया जा रहा है। करवा चौथ का व्रत स्त्रियों के लिए बहुत ही प्रिय एवं खास होता है। वे इस व्रत को बहुत ही प्रेम एवं श्रद्धापूर्वक रखती है। इस मौके पर पति को भी चाहिए कि पत्नी को लक्ष्मी स्वरूपा मानकर उनका आदर-सम्मान करें क्योंकि एक दूसरे के लिए प्यार और समर्पण भाव के बिना यह व्रत अधूरा है।