जब हम स्कूल में पढ़ते थे, तब की होली का मजा ही कुछ और था। यूं तो रंगों का पवित्र त्यौहार होली का इंतजार सभी को रहता था, लेकिन मैं होली के प्रति कुछ ज्यादा ही उत्सुक हुआ करता था। जैसे-जैसे होली नजदीक आती मेरी उत्सुकता मेरे अंदर हिलोरे मारने लगती। मुझे ऐसा लगता मानो आज ही अभी होली हो जाती तो ज्यादा अच्छा होता। लेकिन होली तो अपने नियत समय पर ही होती। ऐसा मुझे इसलिए भी लगता क्योंकि बचपन से ही मुझे मंडलियों में गीत गुनगुनाने मिल बैठकर इंजॉय करने का शौक रहा है, इसलिए होली के 1 सप्ताह पूर्व से ही मंडली बना लेते जिसमें उम्र में हमसे बड़े लोग भी शामिल होते। शाम ढलते ही सभी लोग जुट जाते और हिंदी मास का पहला महीना चैत्र के आगमन की खुशी में ढोल, मंजीरा, झाल और करतार के बीच चैतावर और जोगीरा जैसे पारंपरिक गीतों की मधुर तान वातावरण में गूंजने लगती। वह दिन थे, जब होली के आगमन का इस तरह से एहसास कराती थी। पर अब हमारे पारंपरिक गीत और इस तरह की प्राचीन संस्कृति लुप्तप्राय सी हो गई है ।अब जोगीरा और चैतावर सुनने के लिए कान तरस जाते हैं। चैतावर और जोगीरा जैसे पारंपरिक गीतों के कुछ बोल मुझे आज भी याद है-
” राम खेले होली लक्ष्मण खेले होली,
वृंदावन में मोहन खेले होली”। “जमुना तट श्याम खेलत होरी, यमुना तट”। जोगिरा गाते वक्त तो उत्साह मानो चार गुनी बढ़ जाती थी।
” रारा रारा रारा ओ मोर भैया देख चली जा सारारारा,
कौन ताल से ढोलक बाजे कौन ताल से डंका,
कौन ताल से जोगी नाचे कौन ताल से लौंडा जोगीरा सा रा रा रा।”
भाई मजा आ जाता। घर में हम लोग होली की तैयारी 1 सप्ताह पूर्व से ही शुरु कर देते जैसे ही बाबूजी को वेतन मिलता, हम सब खुश हो जाते। बाबूजी को होली के अवसर पर नए नए कपड़े दिलाने की जिद करते। अगले दिन बाबूजी के साथ बाजार जाते और पसंद के नए कपड़े पाकर खुशी से फूला नहीं समाते। होली का उत्साह इस कदर बढ़ जाता, मानो सागर की लहरें हवा से बातें करने लगी हो। कपड़े हो जाने के बाद हम लोग रंग और गुलाल खरीदते और उसका प्रयोग कैसे करना है, इस बात पर मनन करते। होली का असली मजा तो अगजा के दिन से ही शुरू हो जाता। हम लोग कच्चे आलू को दो भागों में काटकर एक में “चोर” का मोहर और दूसरे में “शैतान” का मोहर खोद लेते। आलू के बने मोहर के ऊपरी परत पर रंग लगा देते और बाहर निकल कर आने जाने वाले लोगों एवं साथियों के पीठ पर धप्पा मारते और “बुरा न मानो होली है” कहते हुए भाग जाते। किसी के पीठ पर “चोर” लिख जाता और किसी के पीठ पर “शैतान”। सचमुच वह पल अद्भुत सुकून और आनंद देने वाला था। होलिका दहन के दिन कढ़ी भात और पकौड़ी खाने में और अगजा की आग में गेहूं की बाली का ओरहा और आलू भूनकर खाने में जो स्वाद मिलता उस आत्मिक सुख की अनुभूति आज भी होती है। आगे जाकर दिन कुछ पाखंडी एवं रंग-गुलाल से दूर रहने वाले लोगों को चिढ़ाने का भी सिलसिला अगजा के दिन चलता। इस तरह के कार्य को अंजाम देने में हमारे चचेरे भाई बिल्लो भैया माहिर थे। आज के बदलते परिवेश लोग कम्प्यूटर और मोबाइल तक सिमट कर रह गए। हमारी प्राचीन परम्परा के विलुप्तप्राय होने के कारणों में होली में अश्लीलता, मिट्टी और कीचड़, गोबर, नाले की गंदगी , कैमिकल मिक्स रंगों का प्रयोग, शराब पीकर बहकना और फिर लड़ाई झगड़े करना भी है। आज शाम होते ही सड़कें सुनी हो जाती है। जबकि पहले की होली में लोग रंग गुलाल लेकर निकल पड़ते थे अपने दोस्तों के घर । बड़े बुजुर्गों के पैर पर गुलाल डालकर आशीर्वाद लेने की परंपरा थी जो अनुपम थी। हमें याद है, जब हम रंग गुलाल लेकर होली खेलने निकलते थे तो आते आते देर रात हो जाती थी। देवर भौजाई की होली भी अब उपरोक्त कारणों से ही विलुप्त होने लगी है। अब देवर भौजाई की होली सिर्फ फिल्मों और भोजपुरी गीतों तक सिमट कर रह गया है। हालाँकि आज भी प्राचीन संस्कृति की झलक गाँवों और छोटे कस्बों में देखने को मिलती है।