शराब बंदी का प्रथम अभियान आंध्र प्रदेश मे शुरू किया गया था लेकिन शराब को बंद करने वाला पहला राज्य गुजरात है। इससे पहले महाराष्ट्र और कर्नाटक में भी शराब बंदी को लेकर आवाजें बुलंद की गयी थी। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 2015 में लिखी अपनी चिट्ठी में शराब की लत को किसानों की आत्महत्या का एक वजह बताया है वहीं कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव से पहले कई जगहों पर महिलाओं ने शराब बंदी को लेकर आंदोलन शुरू किया। उन्होने शराब बंदी को राजनीतिक दलों को अपनी घोषणा-पत्र में शामिल करने की मांग करते हुए कहा, “ऐसा नहीं किए जाने पर महिलाएं वोट का बहिष्कार करेंगी।” यही आवाजें बिहार में पिछली विधानसभा चुनाव से पहले महिलाओं द्वारा उठने लगी। मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने वादा किया था कि चुनावोपरांत शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। पहले उन्होने यह प्रतिबंध देसी शराब पर लगाने की बात कह़ी थी। सरकार बनाने के उपरांत मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने 1 अप्रैल 2016 से पूरे प्रदेश में देसी शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन विदेशी शराब की बिक्री जारी रही। परंतु नितीश मंत्रिमंडल ने 5 अप्रैल 2016 कि एक बैठक में देशी और विदेशी दोनों तरह के शराब पर प्रतिबंध लगाने का फैसला सुना दिया। इस तरह सभी तरह की शराब की बिक्री प्रतिबंधित कर दी गयी। सिर्फ मिलिट्री कैन्टीनों में बिक्री पर छुट जारी रहा। 

शराब बंदी कानून लाये जाने का राजनैतिक एवं सामाजिक सरोकार भी था। शराब बंदी करके एक ओर राजनैतिक रूप से मुख्यमंत्री नितीश कुमार का उद्देश्य जहाँ महिलाओं के वोट को अपने पक्ष में करने का था वही दूसरी ओर गरीब, वंचित समाज, पिछड़े, दलित आदि के जीवन स्तर को सुधारने का भी था। शराब पीने वाले और शराब पीकर बहकने वाले ज़्यादातर लोग इसी वर्ग से आते है। शराब पीकर घरेलू हिंसा करना, अपनी पत्नी के साथ मार-पीट करना, काम के पैसे को शराब मे उड़ा देना आदि परेशानियों से महिलाओं को बचाने के लिए शराब बंदी एक कारगर कदम था। शराब के कारण कई परिवार उजड़ गए थे। गाली-गलौज तथा महिलाओं के साथ छेड़-छाड़ की घटनाएं बढ़ रही थी। शराब पीने वालों के कारण सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाली भारत की आधी जनसंख्या अर्थात महिलाएं ही थी। शराब बंदी कानून की आलोचना भी की जाती है। कुछ लोग कहते है कि यह शराब बंदी नही बल्कि गरीब बंदी है क्योंकि पिछले एक साल में दिहाड़ी मजदूरी करने वाले लोगों को शराब पीने के जुर्म मे 5 साल कैद और 1-1 लाख रूपये का जुर्माना लगा दिया गया। बिना अपराध के लोगों को अपराधी बना दिया गया। टाइम्स ऑफ इंडिया के 2017 के आंकड़े के अनुसार 16 महीने कि शराब बंदी में 3 लाख 88 हज़ार से अधिक छापे पड़े और शराब पीने के जुर्म में 68 हज़ार 579 लोग गिरफ्तार किए जा चुके है। इस हिसाब से अब तक लाखों लोगों को शराब पीने के जुर्म में जेल के अंदर बंद कर दिया गया जो कि सामान्य नही है। जिस शराब को लोग 2016 से पहले सामान्य रूप से पीते थे आज उसे अपराध की श्रेणी में शामिल कर लिया गया। शराब पीने के जुर्म से ज्यादा जुर्म करने वाले लोग कुछ ही घंटों मे जमानत पर छुट जाते है और उनपर किसी तरह का जुर्माना भी नही लगाया जाता। गुजरात मे भी शराब बंदी है परंतु इतनी सख्ती नही जितनी कि बिहार में। 

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए 2018 में बिहार सरकार ने शराब बंदी कानून में संशोधन करने की बात की तथा कैबिनेट में नियमों में ढील दिये जाने संबंधी मंजूरी दे दी। संशोधन विधेयक में शराब बंदी कानून का उल्लंघन करने वालों के लिए मौजूदा सजा के प्रावधान में बदलाव कर उसे कम किया जाना है। दरअसल शराब बंदी कानून का प्रभावकारी ढंग से पालन हो और नशामुक्त समाज की स्थापना के संबंध में बिहार मे शराब बंदी की गयी थी। 

परंतु दुःखद बात यह है कि आए दिन बिहार में पुलिस के द्वारा छापेमारी में देशी और विदेशी शराब पकड़े जा रहे हैं। इससे यह साबित होता है कि कानून का अनुपालन राजकीय सीमाओं पर ठीक से नही हो रहा है। बड़ा सवाल यह है कि राजकीय सीमाओं को पार करके दूसरे राज्यों से यह शराब कैसे आ जाता है? दूसरा बड़ा सवाल यह है कि आज भी लोग चोरी-छीपे शराब का सेवन तो नहीं कर रहे? खैर शराब बंदी कानून का ठीक से पालन हुआ अथवा नहीं इससे अलग हटकर देखा जाये तो सामाजिक दृष्टिकोण से बिहारवासियों को लाभ मिला है। गाली-गलौज, मार-पीट, घरेलू हिंसा, महिलाओं के साथ छेड़-छाड़ कि घटनाओं में कमी देखी जा रही है। पहले उचक्के शराब पीकर चौक-चौराहों पे गाली-गलौज और मार-पीट करते नज़र आते थे। उसमे काफी हद तक सुधार हुआ है। शादी-विवाह आदि अवसरों पर शराब के उपयोग में कमी आई है। इस प्रकार हम देखते है कि एक ओर शराब बंदी कानून की कुछ खामियाँ है तो दूसरी तरफ इसके कुछ सामाजिक फायदे भी है।

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