हमारे देश में जितने भी पर्व त्यौहार हैं, वह हमारी पारंपरिक संस्कृति और मानवीय मूल्यों को बरकरार रखने के लिए बने हैं। प्रत्येक पर्व त्योहारों की अपनी-अपनी विशेषताएं होती है और उसके मायने भी अलग-अलग होते हैं। भारतीय संस्कृति की यह सबसे बड़ी खूबसूरती है कि भारत में रहने वाले प्रत्येक जाति-धर्म एवं पंथ के लोग मिलजुल कर पर्व त्योहारों में उत्साह पूर्वक शामिल होते हैं ।कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि सकारात्मक पहलुओं पर ही जोर दिया जाना त्योहारों का मुख्य उद्देश्य है। त्यौहार हमें नकारात्मकता के भँवर से मुक्ति दिला कर आपसी एकता सद्भावना,सौहार्द्र,एवं प्रेम की भावना को जन्म देता है।
लेकिन पिछले एक दशक से त्योहार को मनाने के मायने धीरे-धीरे बदल रहे हैं। दरअसल पर्व त्यौहार के मूल तत्वों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ बल्कि लोगों के व्यवहार मैं बदलाव आ गया है। आप लोगों के द्वारा फर्व त्योहारों को अपने हितों को साधने के दृष्टिकोण से मनाया जाने लगा है। पर्व त्योहारों का राजनीतिकरण कर दिया गया है। अपने अपने स्वार्थ की भावना से प्रेरित होकर सुनियोजित तरीके से त्योहारों को मनाने का सिलसिला चल पड़ा है। स्वार्थपरता की भावना लोगों के मन मस्तिष्क पर राज करने लगा है। होली जैसे पवित्र त्योहारों के अवसर पर मिलन समारोह अब सामाजिक ना होकर राजनीतिक हो चुका है। इसकी सबसे बड़ी त्रुटि यह है की नजदीकी संबंध होने के बाद भी यदि वह उस पार्टी में नहीं है तो मिलन समारोह का आनंद नहीं ले सकता। कहने का तात्पर्य है कि हम लोग अपनी धार्मिक व पारंपरिक संस्कृति को विशालता से सूक्ष्मता की ओर ले जा रहे हैं। एक तरह से यदि हम यह कहें कि पारंपरिक आस्था और संस्कृति का भी व्यावसायीकरण कर दिया गया है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। कुछ लोगों को पर्व त्यौहार के अवसर पर उन्हें वैसे ही लोग याद आते हैं जिनसे उनको भविष्य में लाभ मिलने की आशा रहती है। चाहे वह लाभ राजनीतिक हो या आर्थिक इस चक्कर में पर्व त्योहारों की मूल भावनाओं का कत्ल हो जाता है। पुराने मित्रों रिश्तेदारों को भूल अपने स्वार्थ में इस कदर लीन हो जाते हैं कि उन्हें सामाजिक परंपरा का ख्याल ही नहीं रहता। बढ़ते इंटरनेट के प्रचलन से भी लोग प्रभावित हुए हैं। इंटरनेट ने भी हमारे समाज और सामाजिक परंपरा को आघात पहुंचाया है।हम लोग फेसबुक और व्हाट्सएप पर दो चार लाइन बधाई का लिखकर अपने आप को पारंपरिक दायित्वों से मुक्त कर लेते हैं। होली एक ऐसा पवित्र मिलन का त्यौहार है। इसमें लोग अपने पुराने गिले-शिकवे को भूल एक हो जाते हैं। लेकिन अब यह परंपरा केवल व्यक्तिगत परिवार तक ही सिमट कर रह गया है। पहले लोग गांव समाज के सभी बड़े छोटे लोगों से मिलकर होली के उत्सव का आनंद लेते थे। इससे समाज में लोगों के प्रति एक सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह फैलता और फिर से एक नए सामाजिक जीवन की शुरुआत करते थे। सभी अमीर गरीब एक दूसरे से गले मिलकर रंग गुलाल लगाते खाते पीते और खुशियां मनाते । परंतु अब लोगों के स्वार्थी व्यवहार ने हालात को बिल्कुल बदल दिया है ।जाती पाती और अमीर- गरीब के भेदभाव में पड़कर त्यौहार की असली मान्यताओं को नजरअंदाज कर दिया।
पर त्यौहारों में शालीनता के स्थान को तेजी से फूहड़ का ने अपने कब्जे में लेना शुरू कर दिया है आजकल धार्मिक अवसरों पर भी अश्लील एवं द्विअर्थी शब्दों वाले गीतों को लाउडस्पीकर और डीजे पर बजाया जाता हैं। कर्णभेदी संगीत पर युवा एवं युवतियां थिरकते नज़र आते हैं। इससे समाज के लोगों को मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ता है। बीमार लोगों को तो ये और बीमार बना देते हैं। इस प्रकार से समाज की शालीनता तो भंग होती ही है अपितु सबसे बुरा प्रभाव बच्चों पर भी पड़ता है। पढ़ने लिखने की उम्र में फूहड़ और अश्लील संस्कृति में उलझकर युवा अपना सुनहरा भविष्य दाँव पर लगा देते हैं। त्योहार खुशियां और आनंद मनाने के लिए होता है। लेकिन कई बार यह देखा गया है कि उतेजित करने वाले फूहड़ गीतों को बजाने के चलते ऐसे लोग झगड़े पर उतारू हो जाते हैं। अपने वास्तविक दायित्यों एवं मर्यादा को भूलकर खुशियों के वातावरण को मातम में बदल देते है। अपने आपको श्रेष्ठ होने का दिखावा करने की प्रवृति के कारण बड़े बुजुर्गों की अच्छी सलाह को भी तवज्जो नहीं देते। शायद इन्हें पता नहीं होता कि उनका कितना बड़ा सामाजिक दायित्य है और त्योहार मनाने का बड़ा ही पावन और विस्तृत उद्देश्य है। यह एक जीवन पद्धति है जिसे अपनाकर हम अपने जीवन को और अधिक सार्थक बना सकते हैं। पर्व त्योहार हमें एकता, सहिष्णुता,प्रेम,और सद्भावना के सूत्र में पिरोते हैं।

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